करुणासागर की करुणा... गुरु की, साधना की, श्रद्धा की सूक्ष्मता का फायदा कोई-कोई विरले ही ले पाते हैं, आखिरी तक निभा पाते हैं । मैंने गुरुजी को चिट्ठी लिखी थी : ‘‘डीसा में आश्रम की कुटिया के चारों तरफ झोपडे हैं और बच्चों की गाली-गलौज सुनाई पडती है । शोरगुल रहता है । नर्मदा किनारे एकांत गुफा है वहाँ जाकर साधना करूँ ?‘‘ गुरुजी ने उत्तर दिया : ‘‘नहीं, वहीं रहो ।‘‘ मन में होता था : ‘यहाँ कैसे साधना हो ? कैसे ईश्वरप्राप्ति हो ?‘ फिर से गुरुजी को चिट्ठी लिखी । बापू ने उत्तर दिया : ‘कुत्ते भौंकते हैं तो ‘ॐ...ॐ...‘ बोलते हैं ऐसी भावना करो और राजनेता जो करेगा, वह भरेगा तुम वहीं रहो ।‘ ऐसा करके मैं सात साल वहीं रहा, गुरु-आज्ञा मानकर । गुरु की आज्ञा-आदेश के पालन और सहयोग के बिना संसार-सागर से पार होना संभव ही नहीं है । जिसकी ईश्वरप्राप्ति की तडप जितनी ज्यादा है उतनी ही ईमानदारी से वह गुरु की आज्ञा मानेगा । अपने हृदय में ईश्वरप्राप्ति की प्यास, ईश्वरप्राप्ति की तडप बढायें । तडप बढने से अंतःकरण की सारी वासनाएँ, कल्मष और दोष तप-तप कर प्रभावशून्य हो जाते हैं । जैसे, गेहूँ को भून दें तो वे गेहूँ के दाने बोने के काम में नहीं आयेंगे । चने आदि को भून दिया फिर उनका विस्तार नहीं होगा । ऐसे ही ईश्वरप्राप्ति की तडप बढाकर वासनाएँ भून डालो । फिर वे वासनाएँ संसार के विस्तार में नहीं ले जायेंगी । लक्ष्य न ओझल होने पाये, कदम मिलाकर चल (शास्त्र-गुरु के अनुभव से) । सफलता तेरे चरण चूमेगी, आज नहीं तो कल ।। Print 7626 Rate this article: 4.5 Please login or register to post comments.